आज कई अरसों बाद कुछ लिख रहा हूँ.. शायद बेकल दर्द यादों के दरख्तों से गुलज़ार बागबां की खामोशियों को चीर कुछ कहना चाहती हो या शायद अपनों से शिकस्त खाया कोई ख्याब कायनात के हर जर्रे से अपने नाकाम जुस्तजू की दास्तान कहने को बेताब हो...काश ऐसा होता कि बेकल दर्द की यह आवाज़ घर के बाहरी चबूतरे पर खामोश बैठी उस "भीगी भागी, भोली भाली" के कानों से गुजर जाती या ऐसा होता कि हवा का एक झोंका चलता और पीपल के पेड़ से दर्द के हर्फ़ में भीगा कोई पत्ता उसके क़दमों में आ गिरता...उफ़...ये कल्पना..ये हसरतें.. शायद ऐसा कभी न हो...खैर शहरयार की चंद शेर के साथ ....
जुस्तजू जिस की थी उस को तो न पाया हम ने
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हम ने
तुझ को रुसवा न किया खुद भी पशेमां न हुए
इश्क की रस्म को इस तरह निभाया हम ने
कब मिली थी कहाँ बिछडी थी हमें याद नहीं
जिंदगी तुझ को बस खाब में देखा हम ने