तुम भी ना


आज तुम्हारी याद से गुफ्तगू हुई
ज़माने की कातिल नज़र से बच बचाकर,
रस्मों की दीवार को कूदती-फांदती 
अक्सर आ जाती है.
सीने के दाहिने हिस्से पर सर रखकर
सोने की कोशिश कर रही थी.
जब पूछा कि "कैसी हो", 
तो घुप्प मारकर चुप बैठ गयी. 
दोबारा पूछा था "बोलो ना".
.इस बार बोलना चाहा लेकिन
शब्द हलक में ही अटक गए थे शायद..
बिलकुल तुम पर गयी है .
खैर तीसरी बार कुछ नहीं पूछा
क्यूँ पूछूं...
ओ खुद पूछेगी..
आखिर है तो तुम्हारी ही याद ना..
अब तुम ये मत कहना "तुम भी ना"
ये तुम्हारा "तुम भी ना" 
सीधा दिल में उतर जाता है. 
ये तुम्हारा "तुम भी ना"