महानगर की धूप
"क्या बात है, आजकल आती नहीं हो इधर। पहले तो आंगन भर-भर आती थी। दादी की तरह छत पर पसरी रहती थी हमेशा। पड़ोसियों ने अपनी इमारतों की दीवार क्या ऊँची की तुम तो इधर का रास्ता ही भूल गयी। अक्सर सुबह देखता हूं, पड़ी रहती हो आजकल उनके छज्जों पर। हमारी परछती तो अब तुम्हें सुहाती ही नहीं ना। लेकिन याद रखो, ऊँची इमारतों के ऊँचे लोग बड़ी सादगी से लूटते हैं। फिर चाहे वो इज्जत हो या दौलत। "
महीनों ने बाद मिली थी। सो सारी शिकायतें सुना डाली। उसने कुछ बोला नहीं। बस हवा में खुशबु घोल और शर्मो - हया का नकाब ओढ़ खिड़की के पीछे चली गई। सोचा कि उसे पकड़कर ओक में भर लूँ। धत्त तेरी की .....फिर गायब ....ये महानगर की धूप भी न ...बिलकुल तुम पर गई है ....हमेशा चीटिंग करती है .
महीनों ने बाद मिली थी। सो सारी शिकायतें सुना डाली। उसने कुछ बोला नहीं। बस हवा में खुशबु घोल और शर्मो - हया का नकाब ओढ़ खिड़की के पीछे चली गई। सोचा कि उसे पकड़कर ओक में भर लूँ। धत्त तेरी की .....फिर गायब ....ये महानगर की धूप भी न ...बिलकुल तुम पर गई है ....हमेशा चीटिंग करती है .