anjan shaheed
पूछ रही है मंगरुगंज की चंद दुकानों की कुर्सी
जिसपे बैठ कर मसला करते चुना और देसी सुरती
भूखन की दूकान पर अक्सर पेपर पड़ने आ जाते थे
क्यारे और बोलिया पर रोज़ टहलने आ जाते थे
अमियाँ की डलिया हैं पुकारे
आ जा वो परदेसी आ रे
कुछ तो आज बता तू हमको
भूल गए हो क्या तुम हमको
देख पोखरे की सीढियाँ टूट रही हैं धीरे-धीरे
घास कटीली इसकी सुषमा लूट रही धीरे-धीरे
इसमे आ जातीं हैं अक्सर गंदे पानी गाँवों के
नहीं मज़ा अब आता है पास के पेड़ के छावों के
खैर बता तू अपनी भी कुछ
और सुना तू अपनी भी कुछ
कुछ तो आज बता तू हमको
भूल गए हो क्या तू हमको
घर-घर में शौचालय बन गया कोई न आता कच्चा पोखरा
राउज्वा की बात छोड़ दे भूल गए सब पक्का पोखरा
बोलिया तो वीरान हो गई मुश्किल से कोई जाता है
कुछ लोगों की बात छोड़ दे बाकी और कौन आता है
खैर बता तू अपनी भी कुछ
और सुना तू अपनी भी कुछ
कुछ तो आज बता तू हमको
भूल गए हो क्या तू हमको
अन्जान शहीद बाज़ार में अब चहल-पहल नहीं पहले जैसी
मौलाना आज़ाद में भी हलचल नहीं अब पहले जैसी
रौनक इसकी गलियों की जाने कहाँ खो गई है
हिन्दू-मुस्लिम का वो प्यार अँधेरे में कंही सो गई है
खैर बता तू अपनी भी कुछ
और सुना तू अपनी भी कुछ
कुछ तो आज बता तू हमको
भूल गए हो क्या तू हमको
क्या याद आता है तुझे रामलीला की वो रात
वो ईद का गले लगना वो शादी की बारात
वो दिवाली में नाचते हुआ नुरुद्दीनपुर जाना
वो छत पर किसी का आना और शरमाना
भूल गया क्या वो दिन
अच्चा नहीं लगता था जब दोस्तों के बिन
कुछ तो आज बता तू हमको
भूल गए हो क्या तू हमको