मैं और तुम्हारा तकिया

अच्छा सुनो...आज तकिये से थोड़ी तनातनी हो गयी..कमबख्त आधी रात को भुनभुना रहा था..वज़ह पूछा तो हिदायती लहजे में बोल उठा "यार ये किस्सी विस्सी मत किया करो"...अब उससे कैसे कहूँ कि उसकी पेशानी पर जो गीलापन है वो किसी "किस्सी विस्सी" की वज़ह से नहीं बल्कि दर्द के उस बर्फीले बादल की वज़ह से है जिसे सालों पहले तुम इन बावली आँखों में छोड़ गयी थी ...दर्द का यही बादल वक्त-बेवक्त बरसता रहता है...और तुम तो जानती ही हो कि रीते हुए दर्द की उम्र थोड़ी लम्बी होती है...काश दिल का अपना कोई मानसून होता..कम से कम बरसने की खबर तो होती और हम भी एहतियात बरतते ..वैसे हम भी बड़े बवाले हो गए हैं..तुम्हारे लिए सजीव चीजों से लड़ते लड़ते निर्जीव चीजों से भी दुश्मनी मोल लेने लगे हैं...